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भारतीय निर्यात उद्योग को बर्बाद कर रहा ट्रंप का टैरिफ़ वॉर

यह हिंदी अनुवाद अंग्रेज़ी के मूल लेख Trump’s tariff war devastating major Indian export industries का है जो 18 नवंबर 2025 को प्रकाशित हुआ था।

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप गुरुवार, 13 फ़रवरी, 2025 को वॉशिंगटन में व्हाइट हाउस के ओवल ऑफ़िस में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात करते हुए। (एपी फोटो/एलेक्स ब्रैंडन) [AP Photo/Alex Brandon]

ट्रंप प्रशासन द्वारा 27 अगस्त से अमेरिका को किए जाने वाले अधिकांश भारतीय निर्यातों पर 50 प्रतिशत टैरिफ़ लगाए जाने के कारण, वस्त्र एवं परिधान, रत्न एवं आभूषण और झींगा पालन जैसे तमाम भारतीय उद्योग संकट में आ गए हैं।

सितंबर में अमेरिका को होने वाला भारत का कुल निर्यात 11.9 प्रतिशत सिकुड़ कर 5.5 अरब डॉलर हो गया और हालांकि पिछले महीने यह बढ़कर 6.3 अरब डॉलर हो गया, फिर भी यह अक्टूबर 2024 से 8.6 प्रतिशत नीचे है।

टैरिफ़ का इसर इतना गंभीर रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी हिंदू वर्चस्ववादी भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) सरकार ने 450.6 अरब रुपये (5.2 अरब डॉलर) का एक बेलआउट पैकेज तैयार किया है, जो केंद्र सरकार के कुल कार्यक्रम व्यय का लगभग 1.3 प्रतिशत है। 12 नवंबर को घोषित इस बेल आउट पैकेज में नकदी की समस्या से जूझ रहे उद्योगों के लिए कोलेटरल फ़्री कर्ज़ (गिरवी रखने की शर्त में छूट) और ट्रेड फ़ाइनांस तक पहुंच को आसान करना तक शामिल है।

ध्यान देने की बात है कि इस बेलआउट पैकेज में उन वर्करों को लिए एक पैसा भी आवंटित नहीं किया गया है जो नौकरी से निकाल दिए गए या छुट्टी पर भेज दिए गए, जबकि ये वर्कर नौकरी करते हुए भी ग़रीबी रेखा वाली मज़दूरी पर गुजारा करते थे और आम तौर पर खुद व अपने परिवार को पालने भर का पैसा भी नहीं कमा पाते थे।

महीनों से, मोदी सरकार भारतीय निर्यात पर टैरिफ़ घटाने के लिए ट्रंप प्रशासन की चिरौरी कर रही है, जोकि 50 प्रतिशत है। और यह मौजूदा समय में किसी भी अन्य देश पर लगाए गए वॉशिंगटन के टैरिफ़ से ज़्यादा है। हालांकि ब्राज़ील पर भी 50 प्रतिशत अमेरिकी टैरिफ़ है लेकिन इसके निर्यात के एक बड़े हिस्से को छूट मिली हुई है।

ट्रंप ने हाल ही में कहा था कि भारत पर टैरिफ़ को 'कम किया जा सकता' है। लेकिन संभावित तानाशाह अमेरिकी राष्ट्रपति ने बार बार भारत की आलोचना की है और आरोप लगाते रहे हैं कि अमेरिकी व्यापार और निवेश को लेकर इसके अवरोध (बैरियर) दुनिया में सबसे अधिक हैं।

मोदी सरकार ने, अमेरिकी आयातों पर भारत में लगाए जाने वाले टैरिफ़ में भारी कटौती करने की पेशकश की है, जिसमें मशीनरी, विमान और मिनरल ईंधन शामिल हैं लेकिन इससे कोई राहत नहीं मिली। ट्रंप को खुश करने की एक और कोशिश करते हुए, भारत की सरकारी स्वामित्व वाली तेल कंपनियों ने सोमवार को घोषणा की कि उन्होंने अमेरिकी उत्पादकों के साथ 22 लाख टन अमेरिकी तरलीकृत पेट्रोलियम गैस (एलपीजी) आयात करने के लिए एक साल का समझौता किया है। यह भारत के कुल सालाना एलपीजी आयात के लगभग 10 प्रतिशत के बराबर है।

अभी ट्रंप सरकार भारत को जिन रियायतों की पेशकश कर रही है उससे भारतीय सामानों पर अमेरिकी टैरिफ़ लगभग 25 प्रतिशत या इससे अधिक बना रहेगा, भले ही वॉशिंगटन और नई दिल्ली ट्रेड डील कर लेते हैं।

इस साल की शुरुआत में, भारतीय अधिकारियों ने विश्वास जताया था कि वे न केवल ट्रंप के रेसिप्रोकल टैरिफ़ पर एक संतोषजन समझौता कर लेंगे बल्कि वे जल्द ही वॉशिंगटन के साथ एक व्यापक व्यापार और निवेश समझौता कर लेंगे।

हालांकि, ये सब तक उलट पलट गया जब वॉशिंगटन ने मांग की कि अमेरिका की बड़ी कृषि कंपनियों के लिए भारत अपने कृषि क्षेत्र को खोल दे और सस्ते रूसी तेल के अपने आयात को बंद कर दे। पहली मांग करोड़ों छोटे किसानों की आमदनी को निचोड़ कर रख देगी और दूसरी मांग महंगाई को बढ़ा देगी और रूस के साथ नई दिल्ली के लंबी अवधि वाले रणनीतिक साझेदारी को कम कर देगी।

ट्रेड डील पर जब बातचीत विफल हो गई और जुलाई के अंत में अमेरिका ने भारतीय वस्तुओं पर 25 प्रतिशत टैरिफ़ लगाया तो नई दिल्ली को इस बात का थोड़ा संतोष था कि असल में यह चीनी निर्यात पर लगाए गए अमेरिकी टैक्स से कम है।

लेकिन कुछ दिनों बाद ही ट्रंप ने, रूसी तेल के आयात को कम करने की अमेरिकी मांग मानने से इनकार करने के लिए सज़ा के तौर पर भारत पर अतिरिक्त 25 प्रतिशत टैरिफ़ लगा दिया। दरअसल मॉस्को को कमज़ोर करने और अमेरिका-नेटो द्वारा भड़काए गए यूक्रेन युद्ध को अमेरिकी साम्राज्यवाद की शर्तों पर ख़त्म करने के लिए ट्रंप प्रशासन, रूसी सरकारी तेल की आमदनी को कम करना चाह रहा है।

अमेरिका को होने वाले निर्यात, भारत के कई उद्योगों और पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। हाल के सालों में भारतीय निर्यात के लिए अमेरिका सबसे बड़ा बाज़ार बन कर उभरा है और भारत के कुल निर्यात का 20 प्रतिशत वहां जाता है। वित्त वर्ष 2024-25 में, जिसका समापन मार्च 2025 में होता है, अमेरिका को होने वाला निर्यात 86 अरब डॉलर का था। इसमें से तकरीबन 50 अरब डॉलर की वस्तुओं पर अब 50 प्रतिशत टैरिफ़ लग गया है, जो इन्हें अमेरिकी उपभोक्ताओं के लिए बहुत अधिक महंगा कर देता है।

भारत पर ट्रंप के आर्थिक युद्ध के तीन महीने से कम समय में ही, नतीजे बहुत भयावह रहे हैंः फ़ैक्ट्रियां बंद हो गईं, बड़े पैमाने पर नौकरियां चली गईं, काम के घंटे में भारी कटौती हुई और बड़े पैमाने पर वर्करों को छुट्टी पर भेज दिया गया, और इसने पहले से ही ग़रीबी के बोझ तले मज़दूर वर्गीय परिवारों को और संकट में डाल दिया।

भारत का कपड़ा उद्योग, अपनी गहरी ऐतिहासिक जड़ों के साथ, कम से कम 4.5 करोड़ मज़दूरों को प्रत्यक्ष रोज़गार प्रदान करता है और अन्य 6-10 करोड़ लोगों का भी सहारा है, जिनमें छोटे कपास किसान, ट्रक चालक और कपड़ा मिलों के पास स्ट्रीट फ़ूड बेचने वाले शामिल हैं।

कपड़ा क्षेत्र में सिंथेटिक और सूती कपड़े बनाने वाले छोटे और मझोले आकार के उद्यमों (एसएमई) की बहुतायत है। उद्योग में एसएमई की हिस्सेदारी कम से कम 60 प्रतिशत है। वे अब नकदी की गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं और कई तो बिना बिके माल के कारण दिवालिया होने के कगार पर हैं। लघु उद्योगों को उन उद्यमों के रूप में परिभाषित किया जाता है जिनके पास एक करोड़ रुपये ($115,000) से कम की अचल या लीज़ पर दी गई संपत्ति होती है, जबकि मझोले आकार के उद्यम वे होते हैं जिनके पास निवेश से 10 गुना से कम राशि होती है।

भारत के कपड़ा उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा घरेलू कुटीर उद्योगों द्वारा संचालित होता है, जहाँ मज़दूर कम वेतन पर लंबे समय तक बहुत कठिन काम करते हैं। इनमें से कई उद्यमों को 'माइक्रो फ़ाइनांस' के ज़रिए वित्तपोषित किया जाता है, जिसका प्रचार बांग्लादेश के वर्तमान राष्ट्रपति मुहम्मद यूनुस, पूंजीवाद द्वारा पैदा हुई ग़रीबी के कथित समाधान के रूप में करते हैं।

भारतीय अर्थव्यवस्था में कपड़ा उद्योग की एक बड़ी हिस्सेदारी है और यह कुल जीडीपी का 2.3 प्रतिशत है और कुल निर्यात का 12 प्रतिशत है। इसके अलावा यह कृषि के बाद, रोज़गार देने वाला दूसरा सबसे बड़ा क्षेत्र है। कृषि क्षेत्र की जीडीपी में हिस्सेदारी 16 प्रतिशत है, फिर भी यह देश के कुल कार्यबल के 46 प्रतिशत को रोज़गार दिए हुए है। ये असंतुलन ही भारत के आर्थिक पिछड़ेपन की कहानी बयां कर देता है- कृषि में कार्यरत मज़दूरों का अनुपात दुनिया के सबसे ग़रीब और कम विकसित देशों में से एक अफ़ग़ानिस्तान से भी अधिक है।

रिपोर्ट्स बताती हैं कि तमिलनाडु के तिरुपुर जिसे 'भारत की निटवियर राजधानी' कहा जाता है, यहां के कई कारखानों ने उत्पादन रोक दिया है या कम कर दिया है। गुजरात के सूरत और पंजाब के लुधियाना जैसे अन्य कपड़ा केंद्रों में भी इसी तरह की कटौती हुई है। ऑर्डर रद्द कर दिए गए हैं, भुगतान में देरी हुई है और कई छोटी और मझोली एक्सपोर्ट यूनिटें पूरी तरह से बंद हो गई हैं। तिरुपुर में, बिहार और ओडिशा के हज़ारों प्रवासी मज़दूरों को घर भेज दिया गया है, जबकि पीस-रेट पर काम करने वाली महिलाओं को 'हफ़्तों तक कोई काम नहीं' मिलने की बात कही गई है।

गुजरात के सूरत में पॉवरलूम आधी क्षमता पर चल रहे हैं। लूम चलाने की औसत कमाई 21,000 रुपये प्रति माह से भी कम है, जिसमें मुश्किल से खाने-पीने और किराए का खर्च पूरा हो पाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी गुजरात से आते हैं, जहाँ उन्होंने 2002 में एक मुस्लिम-विरोधी जनसंहार कराया था, जिसके कारण उन्हें 'गुजरात का कसाई' कहा जाने लगा था।

भारत के सबसे ग़रीब राज्यों में से एक, उत्तर प्रदेश के नोएडा में तैयार कपड़े बिना बिके पड़े हैं क्योंकि विदेशी ख़रीदार डिलीवरी से इनकार कर रहे हैं। एक्सपोर्टरों का मानना है कि वे बांग्लादेश या वियतनाम से होड़ नहीं लगा सकते, जहाँ बहुत कम, 20 प्रतिशत अमेरिकी टैरिफ़ है। उद्योग फंस गया है: वे बैंकों को कर्ज़ नहीं चुका पा रहे, अमेरिका से ऑर्डर में देरी हो रही है और सबसे गंभीर बात, पूंजीवाद के तर्क के आगे मज़बूर होकर, लाखों कपड़ा मज़दूरों को बेरोज़गार कर दिया गया है।

एक दूसरा क्षेत्र है रत्न एवं अभूषों का, जिसपर बहुत अधिक असर पड़ा है। भारत का 37 प्रतिशत हीरा निर्यात और 28 प्रतिशत आभूषण निर्यात अमेरिका को जाता है। यह क्षेत्र 50 लाख वर्करों को सीधे रोज़गार देता है और भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 7 प्रतिशत का योगदान देता है। निर्यात में कटे और पॉलिश किए हुए हीरे, रंगीन रत्न और सोने के आभूषण शामिल हैं। लगभग 65 प्रतिशत उत्पादन छोटी, घरेलू वर्कशॉप में होता है, जो अमेरिकी मांग में गिरावट का ख़ामियाज़ा भुगत रही हैं।

अमेरिका, भारतीय सी फ़ूड निर्यात का सबसे बड़ा बाज़ार भी है, जो कुल निर्यात का लगभग एक-तिहाई है। अमेरिका ने, भारतीय सी फ़ूड निर्यात पर पहले से ही 5.76 प्रतिशत का टैरिफ़ लगा रखा है और 3.96 प्रतिशत एंटी-डंपिंग शुल्क लागू है, जिससे अमेरिका को भारत के सी फ़ूड निर्यात पर प्रभावी टैक्स अब लगभग 60 प्रतिशत हो गया है, जिससे अमेरिका में सी फ़ूड का निर्यात अव्यावहारिक हो गया है।

ट्रंप प्रशासन के कठोर शुल्कों के बावजूद, बीजेपी सरकार और वास्तव में पूरा भारतीय शासक वर्ग, प्रतिक्रियावादी चीन-विरोधी भारत-अमेरिकी वैश्विक रणनीतिक साझेदारी के प्रति प्रतिबद्ध है, जो पिछले दो दशकों से उनकी विदेश नीति और भू-आर्थिक रणनीति का आधार रही है।

हाल ही में हुए आसियान शिखर सम्मेलन के दौरान, भारत के रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और अमेरिकी युद्ध सचिव पीट हेगसेथ ने एक नए 10-वर्षीय रक्षा ढाँचा समझौते (डीएफ़ए) पर हस्ताक्षर किए। यह समझौता 2015 में हुए समझौते का विस्तार है और इसका उद्देश्य भारत को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य अभियानों में और भी अधिक एकीकृत करना है। हस्ताक्षर के समय, सिंह ने दावा किया कि यह भारतीय पूंजीपति वर्ग और अमेरिकी साम्राज्यवाद के बीच बढ़ते 'रणनीतिक एकजुटता' की ओर इशारा करता है, जबकि कुख्यात चीन-विरोधी युद्ध-प्रवृत्ति वाले हेगसेथ ने डीएफ़ए की सराहना करते हुए कहा कि यह 'हमारी रक्षा साझेदारी को आगे बढ़ाता है, जो क्षेत्रीय स्थिरता और प्रतिरोध की आधारशिला है।'

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